हमारे शास्त्रों में संत को मित्र और असंत को शत्रु कहा गया है,संत का वियोग कष्टदायी होता है और असंत का संयोग। दोनों ही दुखदायी हैं तो मित्र और शत्रु में कोई अन्तर नहीं है। तुलसीदास ने इसलिए दोनों की वन्दना की है,
"बंदौं संत-असज्जन चरणा , दुखप्रद उभय बिच कछु बरना।
मिलत एक दुख दारुण देहि, विछुरत एक प्राण हरि लेहि।।
इस बात की पुष्टि संस्कृत वाङ्गमय के निम्न श्लोक में की गई है,
शत्रुर्दहति संयोगे वियोगे मित्रमप्यहो।
उभयोः दुखदायित्वं कः भेदः शत्रु -मित्रयोः।।
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं |
मिलत एक दुःख दारुन देहीं ||
Are both saints and non-saints are responsible for pain and sorrow?
विश्लेषणकर्ता - अनुज मिश्रा
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Anuj Mishra
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